शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

प्रजाजनों ने सोचा मणि भगवान कृष्ण ने ली है। प्रसेनजित की हत्या भी भगवान ने ही की है और मणि प्राप्त कर ली है। चोरी का इल्ज़ाम लग गया कृष्ण पर।ये प्रजा किसी की सगी नहीं होती है। इसने निर्दोष (अच्युत )भगवान कृष्ण को भी नहीं छोड़ा।द्वारकावासी गुरुदेव के पास गए। गुरुदेव ने कहा कृष्ण तो साक्षात भगवान हैं , तुम चिंता मत करो। बोले वासुदेव मैं अपने पुत्र वसुदेव की चिंता कर रहा हूँ। वह मेरा पुत्र भी तो है।भले मैं जानता हूँ कि वह ब्रह्म भी है।

ऐसा कहते हैं ये सम्पूर्ण अखिल ब्रह्माण्ड भगवती पराम्बा के नख से उत्पन्न हुआ है।

आदि शक्ति ये ही, जग उपजाया ,

सो अवतरित तोर ,यह  माया।

 जो कुछ भी दृष्टि गोचर हो रहा है ऐसा कहते हैं यह उस पराम्बा की परममाया है। उस पराम्बा को आदि शक्ति को जानने के लिए देवीभगवती श्रीमददेवी भागवदका श्रवण करें। इस कथा के माध्यम से इसके श्रवण से ही मन बुद्धि ,चित्त ,अहंकार आदि सब शुद्ध ,बुद्ध ,प्रबुद्ध हो जाते हैं। ये चराचर जगत उस पराम्बा के द्वारा ही है। 

भवसागर अब सूख गयो है ,फ़िक्र नहीं मोहे तरणं की

मीरा ने यह क्या कह दिया-भवसागर अब सूख गयो है -भवसागर था ही कहाँ ,है ही नहीं ,ज्ञान प्राप्त होने पर शेष कुछ बचता ही नहीं है। कुछ है ही नहीं जो बचे। मीरा के तो सब देह के संबंध तिरोहित हो गए थे। तभी तो वह ऐसा कह सकीं -अब कोई बंधन शेष नहीं है। भवसागर सब सूख गयो है फ़िकर नहीं मोहे तरणं की। मैं तो तर गई।



संसार के रस (काम ) को भोगने में रस तो है लेकिन उससे बड़ा ब्रह्म रस है. रामरस है।हम मनो-सपनों  को अपनी कामनाओं को साकार करने में जी रहे हैं।जबकि इससे बड़ा रस मीरा को मिला -कृष्ण रस/राम रस । और उसने गाया -

खर्च न खूटे वाको मोल न मूके ,
दिन दिन बढ़त सवायो।

ऐसी प्रसन्नता मीरा के हाथ लग गई है जो थिर नहीं है शाश्वत है। हम संसार की वस्तुओं में ही प्रसन्नता ढूंढते हैं पर  संसार में तो ऐसा कुछ है ही नहीं जो थिर न हो ,सब कुछ नश्वर है। नश्वर पदार्थ से स्थाई प्रसन्नता कहाँ से प्राप्त हो। 

भगवान के महल में सत्राजित का आगमन हुआ। सूर्य ने उन्हें समन्तक मणि प्रदान की थी उनकी आराधना से प्रसन्न होकर। यह मणि सब कुछ देती है। सत्राजित को लगा, मणि मिली है मुझे इसका प्रदर्शन करना चाहिए। द्वारका वासियों ने जब सत्राजित को देखा जिसके पास मणि थी ,जो मणि लिए आ रहा था -उन्हें लगा जैसे सूर्य भगवान खुद ही चले आ रहे हैं। भगवान ने कहा यह तो मणि का प्रकाश है जो सत्राजित के पास है । ये जो आ रहा है उसका अपना प्रकाश नहीं है। भगवान ने मज़ाक में खेल -खेल में कह दिया -कहा यह मणि तो बहुत कीमती है ,तुम इसका क्या करोगे। इसे राजकोष में जमा कर दो। प्रजा के काम आएगी। सत्राजित बोला नहीं भगवान  मेरे मन में  मैं तो इसका लोभ है मैं नहीं दूंगा इसे। बड़ी कठिनाई से मिली है मुझे।

उसने मणि अपने भाई प्रसेनजित  को दी। वह आखेट करने ,मृगया करने चला गया। सिंह का शिकार करने चला गया। शेर ने उस पर प्रहार किया। उसकी  हत्या कर दी। मणि उसके हाथ  से चली गई। सिंह के पंजों में फंसी   मणि जामवंत ने देखी ।इतनी महंगी चीज़ इसके पंजों में। और जामवंत ने सिंह से मणि को प्राप्त कर लिया।

प्रजाजनों ने सोचा मणि भगवान कृष्ण ने ली है। प्रसेनजित की हत्या भी भगवान ने ही की है और मणि प्राप्त कर ली है।  चोरी का इल्ज़ाम  लग गया कृष्ण पर।ये प्रजा किसी की सगी नहीं होती है। इसने निर्दोष (अच्युत )भगवान कृष्ण को भी नहीं छोड़ा।द्वारकावासी गुरुदेव के पास गए। गुरुदेव ने कहा कृष्ण तो साक्षात भगवान हैं ,  तुम चिंता मत करो। बोले वासुदेव मैं अपने पुत्र वसुदेव की चिंता कर रहा हूँ। वह मेरा पुत्र भी तो है।भले मैं जानता हूँ कि वह ब्रह्म भी है।

 गुरुदेव के कहने पर देवी भागवद बैठाई गई। देविभागवद से शीघ्र फल प्राप्त होते हैं। कृष्ण लौट आये। साथ में जामवंती भी थी -लेकिन इस बीच क्या हुआ था ?

भगवान ने अपने दोस्तों से कहा था -मैं अभी आता हूँ। उस गुफा में जाता हूँ। पन्द्रह  दिन में लौट आऊंगा। भगवान ने गुफा के बाहर रक्त  के धब्बे देखे।प्रसेनजित की लाश पड़ी देखी  गुफा के बाहर भगवान ने.भगवान गुफा के अंदर चले गए। वहां उन्होंने जामवंत को देखा। जामवंत के पुत्र हाथ में मणि को देखा। जामवंत के बेटे के साथ भगवान का बड़ा भीषण युद्ध हुआ जो समाप्त ही होने में , नहीं आ रहा था।  परन्तु जामवंत ने जब उनकी आँख में झाँक कर देखा तो पता चला अरे -ये तो मेरे भगवान हैं।

 एक महीना हो गया था भगवान नहीं लौटे।पूरी प्रजा अधीर हो गई ,कृष्ण नहीं आये।

जामवंत सोच रहा है -ये ही तो स्वयं परशुराम थे । बावन अवतार के बावन थे। मैं मूरख इनसे लड़ था। गिर पड़ा जामवंत भगवान के चरणों में -आँखों में आंसू आ गए -मैं अपने भगवान से ही लड़ रहा था। जामवंत ने प्रायश्चित किया। भगवान से उसने माफ़ी मांगी। और मणि ही नहीं भगवान को अपनी कन्या जामवंती    भी दे दी। वानर रूप था जामवंती  का पर भगवान ने फैला दिया बहुत सुन्दर है। रुक्मणी जी को भी ईर्ष्या हो गई। पर वह तो वैसी नहीं थी। जबकि द्वारिका की सभी रानियां बड़ी सुन्दर थीं। वह बेचारी इसीलिए अपना मुख नहीं दिखा रही थी। घूंघट काढ़े हुए थी। रुक्मणी के जामवंती  ने  पैर छूए।रुक्मणी पटरानी थीं।आशीर्वाद देते हुए   कहा-जा  तू मेरी जैसी हो जा। रुक्मणी ने सोचा मुझसे ज्यादा सुन्दर हुई तो मेरे जैसी ही तो हो जाएगी।  जामवंती ने घूंघट खोला ,जामवंती रुक्मणी जैसी ही निकलीं। 

शीघ्र फलदायनी देवीभागवद पुराण से कुछ अंश   

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