जीव जीव का भोजन है यह विधान पशुजगत के लिए ही हैं वह भी समस्त पशुओं के लिए नहीं है
सेकुलर होने दिखने से हमारी सियासत चलती है
दया लाठिया साहब शाकाहार पर आपने बेहतरीन काव्य पढ़वाया जिसमें न सिर्फ अध्यात्म के स्वर हैं मनुष्यों का भी आवाहन है -जीव जीव का भोजन है यह विधान पशुजगत के लिए ही हैं वह भी समस्त पशुओं के लिए नहीं है ,शेर को आप ये नहीं कह सकते भैया तुम कल से शाकाहारी बन जाओ। शेर अनावश्यक हिंसा नहीं करता है। हम मनुष्यों की बात और है।
मनुष्य को परमात्मा ने विवेक बुद्धि दी है कर्म करने की स्वायत्ता दी है। श्रेयसकर्म करें या प्रेयस चयन उसका अपना है। जिस दिन गौ मांस का भक्षण करने वाला अमरीका यह जान जाएगा कि ओज़ोन कवच के छीजने को गोबर की विशाल राशि बचा सकती है और हमने सांफार्न्सिस्को से नेवादा तक की सड़क यात्रा पर यह विशाल राशि अमरीकी ग्राम्यांचलों में देखी हैं ,जिस दिन उसे पता चलेगा कि गोबर एक ऐसा अकेला पदार्थ है जो अपने तापमान को बनाये रहता है और यह करिश्मा उसके सरफेस पर मौजूद स्वेत परत करती है उस दिन वह अपना नज़रिया बदल भी सकता है। जिस दिन उसे पता चलेगा गाय को जीवित रखना उसे मारने से ज्यादा लाभ का सौदा है उस दिन यहां एक क्रान्ति हो जाएगी।
जिस दिन उसे इल्म होगा गायका शुद्ध घृत शुद्ध रूप मंत्रोचार के साथ होम करने से वातावरण में दस हज़ार लीटर ऑक्सीजन प्रति सौ ग्राम धृत से दाखिल हो जाती है उस दिन वह अपना रवैया बदलेगा। उसे निरंतर गाय से प्राप्त अनुपम सामिग्री यथा गौरेचन (गाय की कान का मेल ),गोबर से लेपित घर के खतरनाक विकिरण रोधी गुणों के बारे में निरंतर आगाह करते रहने की ज़रुरत है। वह अपनी करनी एक दिन बदलेगा। वह ज़रूर बदलेगा। हमारी बात और हैं हम तो सेकुलर हैं। सेकुलर होने दिखने से हमारी सियासत चलती है।
एक प्रतिक्रिया दया लाठिया साहब के एफेसबुक पोस्ट पर :
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कंद-मूल खाने वालों से मांसाहारी डरते थे..पोरस जैसे शूर-वीर को नमन 'सिकंदर' करते थे...चौदह वर्षों तक खूंखारी वन में जिसका धाम था.....मन-मन्दिर में बसने वाला ....शाकाहारी राम था.....चाहते तो खा सकते थे वो मांस पशु के ढेरो में... लेकिन उनको प्यार मिला ' शबरी' के जूठे बेरो में...चक्र सुदर्शन धारी थे गोवर्धन पर भारी थे...मुरली से वश करने वाले 'गिरधर' शाकाहारी थे..पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम चोटी पर फहराया था...निर्धन की कुटिया में जाकर जिसने मान बढाया था...सपने जिसने देखे थे मानवता के विस्तार के... नानक जैसे महा-संत थे वाचक शाकाहार के.....दया की आँखे खोल देख लो पशु के करुण क्रंदन को...आँखे कितना रोती हैं जब उंगली अपनी जलती है...सोचो उस तड़पन की हद जब बेजुबान पर आरी चलती है ...खाने से पहले बिरयानी तुम चीख जीव की सुन लेते...करुणा के वश होकर तुम भी गिरी गिरनार को चुन लेते॥
कंद-मूल खाने वालों से मांसाहारी डरते थे..पोरस जैसे शूर-वीर को नमन 'सिकंदर' करते थे...चौदह वर्षों तक खूंखारी वन में जिसका धाम था.....मन-मन्दिर में बसने वाला ....शाकाहारी राम था.....चाहते तो खा सकते थे वो मांस पशु के ढेरो में... लेकिन उनको प्यार मिला ' शबरी' के जूठे बेरो में...चक्र सुदर्शन धारी थे गोवर्धन पर भारी थे...मुरली से वश करने वाले 'गिरधर' शाकाहारी थे..पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम चोटी पर फहराया था...निर्धन की कुटिया में जाकर जिसने मान बढाया था...सपने जिसने देखे थे मानवता के विस्तार के... नानक जैसे महा-संत थे वाचक शाकाहार के.....दया की आँखे खोल देख लो पशु के करुण क्रंदन को...आँखे कितना रोती हैं जब उंगली अपनी जलती है...सोचो उस तड़पन की हद जब बेजुबान पर आरी चलती है ...खाने से पहले बिरयानी तुम चीख जीव की सुन लेते...करुणा के वश होकर तुम भी गिरी गिरनार को चुन लेते॥
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