सोमवार, 12 अक्टूबर 2015

गुरु एक उभय सत्ता है। शिष्य और गुरु दो नहीं हैं। जहां हम अपनी आस्था का निवेश कर सकें वही गुरु है


सतसंग के फूल 

जो बात दवा से बन न सके ,वो बात दुआ से होती है ,

पक्का सदगुरु मिल जाए तो ,फिर बात खुदा से होती है। 

गुरु एक उभय सत्ता है।   शिष्य और गुरु दो नहीं हैं। जहां हम अपनी आस्था का निवेश कर सकें वही गुरु है। अधिकारी शिष्य गुरु हो जाता है गुरु का सब कुछ उसको अंतरित हो जाता है। गुरु किसी व्यक्ति का ही नाम नहीं है हाँ उसमें गुरुतत्व हो सकता है। गुरु ग्रन्थ भी है ,ज्ञान भी। हमारे दुखों का कारण आत्मविस्मृति है। जो हमें हमारे स्वरूप का ज्ञान करावे वही गुरु है।जो हमारी आध्यात्मिक आकांक्षाओं को जागृत करे हमें हमारे स्वभाव की ओर लौटाए वह गुरु है।  


अव्वल ,अल्लाह ,नूर उपाया ,कुदरत के सब बन्दे ,

एक नूर ते सब जग उपज्या ,कौन भले कौन मंदे।  

जो ये इल्म कराए वही गुरु है।


जो हमें विचार दे। नव चिंतन दे। अन्धकार से प्रकाश की ओर ,मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाए वही गुरु है।  

(२)प्रहलाद होने का मतलब :

हरि ही सर्वेषु भूतेषु -प्रहलाद के लिए ईश्वर एक अटूट विश्वास है। यह विश्वास उसका इतना व्यापक है कि उसे सर्वत्र हर वस्तु ,प्रत्येक प्राणि में ईश्वर ही दिखलाई देता है। 

हरि व्यापक सर्वत्र समाना ,प्रेम ते प्रकट होहि मैं जाना। 

उसकी एक मान्यता है -ईश्वर कभी मेरा अनिष्ट नहीं कर सकता। प्रहलाद का इष्ट तो सदैव ही मंगलकारी है। आपका विश्वास जितना व्यापक होगा आपका ईश्वर भी उतना ही विश्व व्यापी होगा। बड़ा व्यापक है प्रह्लाद का विश्वास। वह पिता के क्रोध में भी,  उत्तप्त लौह स्तम्भ में भी  ,तलवार की धार में भी ,खम्भ में भी सर्वत्र एक ब्रह्म ही को देखता है।  

उत्तप्त लौह स्तम्भ की मीनार से चोटी से उसे एक चींटी उतरती दिखलाई देती है। चींटी तो चढ़ती है उतरती नहीं है ये चींटी का उतरना विपत्ति के समय भगवान का अवतरण है भक्त के लिए। ये चींटी प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु को दिखलाई नहीं देती है। 

पिता जब क्रोध में भरकर उससे कहते हैं -कहाँ है तेरा ईश्वर ,वह कहता है सर्वत्र। इस लौहखम्भ में भी है प्रह्लाद कहता है- हाँ है। उसका विश्वास इतना प्रबल है ईश्वर उसके विश्वास को झुठला नहीं सकते उन्हें उतरना ही पड़ता है। पहाड़ों की चोटियों से उसे फेंका जाता है नुकीले धारदार शस्त्रों से उसे  बींधा जाता है।पर सब शस्त्र उसके विश्वास के आगे बे -असर हो जाते हैं कुंद होकर फ़ूल बन जाते हैं उसके विश्वास के आगे। भक्ति एक भाव है मस्तिष्क की नहीं हृदय की वस्तु है।भक्ति भक्त की भाषा भी बदल देती है वह कोमल हो जाता है। करुणा से भर जाता है। 

जब नरसिंह भगवान उसके पिता को महल की देहरी पे लेजाकर घुटनों पे उसे लिटाकर अपने नाखूनों से उसका पेट विदीर्ण करते हैं उसकी अंतड़ियां माला बनाकर गले में डाल लेते हैं ,उसके खून से स्नान करने लगते हैं तब प्रह्लाद करुणा से भरकर कहता है ये क्या कर दिया आपने आप इतने क्रूर नहीं हो सकते।ये मेरे पिता हैं ,आप इनका परलोक सुधारिये।

इनसे जो कुछ हुआ अज्ञान में हुआ तमोगुण के प्रभाव से हुआ। इसमें इनका कोई कसूर नहीं है। आप तो अहेतुक करुणानिधान हैं। बोले भगवान जिस कुल में तुम्हारे जैसा मेरा भक्त हुआ है उसकी तो आने २१ पीढ़ी स्वर्ग का सुख भोग प्राप्त करेंगी।        


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