शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

माया मरी ,न मन मरा ,मर मर गए शरीर , आशा तृष्णा ना मरी कह गए दास कबीर।

तेरा मन बड़ा पापी संवरिया रे 
श्रीमद्भगवतगीता में अर्जुन से श्रीकृष्ण कहते हैं कि
यह मन बहुत चंचल है अर्जुन! केवल सतत अभ्यास से इस पर काबू पाया जा सकता है।
मैं अक्सर सोचता हूं कि क्या मन और आत्मा में कोई कनेक्शन है? कहीं ये दोनों वस्तुतः एक ही तो नहीं? कोई एक संज्ञात्मक चेतना? आधुनिक विज्ञान आत्मा के अस्तित्व पर मौन है। मन या / और चेतना पर अनुसंधान तेजी पर हैं. नित नए रहस्यावर्त उद्घाटित हो रहे हैं।
आत्मा की अवधारणा यदि खारिज कर दें तो हिन्दू धर्म दर्शन की समूची इमारत ही धड़ाम हो जाएगी। मन कभी कभार आत्मा की प्रतीति कराता है। मन कभी कभी चिर नवीनता का बोध कराता है जैसे उसका कभी वार्धक्य ही नहीं होगा। शरीर तन दुर्बल जर्जर है किन्तु मन उल्लास के कुलांचे भर रहा है। मगर समय के साथ शरीर और मन का तारतम्य बिगड़ता जाता है।
शरीर जवाब देने के कगार पर है मगर मुआ मन अभी तो मैं जवान हूँ की पेंगे मारता है। यह एक असहज स्थिति है। इसलिए ही कभी कभी ऐसा भी लगता है कि मन का कोई न कोई कनेक्शन आत्मा से अवश्य है जो उससे ऊर्जित हो जीवंत होता रहता है।
शरीर से निरपेक्ष आत्मा चिर नवीन निष्पाप निष्कलंक बना रहता है और मन भी ऐसी उछालें मारता रहता है। शरीर के निष्काम हो जाने के बाद और बावजूद भी मन कभी बूढा नहीं होता और यह भी कदाचित संभव है कि यह भी शरीर को आत्मा के साथ ही छोड़ नयी देह धारण कर लेता हो।
अनुभव ने बताया है कि मन से दकियानूसी और तन से आधुनिक होना एक घातक संयोग है जबकि तन से पारंपरिक और मन से आधुनिक होना सुखद संयोग। और ऐसे तमाम उदाहरण सार्वजनिक और निजी जीवन में मिलते रहते हैं। जहां विवेक का इस्तेमाल जरुरी है।
शरीर का पुनरागमन संभव नहीं किन्तु मन का बार बार पुनरागमन होना इंगित होता है। मिलते रहेगें हम जनम जनम। अब यह खुराफाती चिंतन भी मन की ही फितरत है। तेरा मन बड़ा पापी संवरिया रे 

"इसलिए ही कभी कभी ऐसा भी लगता है कि मन का कोई न कोई कनेक्शन आत्मा से अवश्य है जो उससे ऊर्जित हो जीवंत होता रहता है।"-डॉ. अरविन्द मिश्र(मिश्रा जी अरविन्द भाईसाहब )
मान्यवर !आपका अनुमान गलत नहीं है सनातन शास्त्रों में अनेक स्थलों पर 'मन 'आत्मा के लिए भी प्रयुक्त हुआ है। 
आपके प्रश्न का आंशिक समाधान समाधि का स्वरूप कर सकता है। वैसे समाधि राजघाट स्थलीय भी कही समझी जाती हैं। समाधि दो प्रकार की है :
(१ )निर्विकल्प (निर्बीज )समाधि 
(२ )सविकल्प सबीज समाधि। 
पहले यह बूझे समाधि है क्या ?स्वयं का 'स्वयं -भू 'में विलय समाधि है। इस अवस्था में शेष कुछ नहीं रहता। 
निर्बीज समाधि का मतलब है जब कारण -शरीर(बीज शरीर ) भी समाप्त हो जाए ,'सूक्ष्म' और 'स्थूल' शरीर भी। 
सूक्ष्म शरीर 'मन -बुद्धि -चित्त -अहंकार 'अंत:करण चतुष्टय को कहते हैं। 
जब जीव (चेतन ,चेतना ,आत्मा )शरीर से विमुक्त होता है एक शरीर को छोड़ दूसरे में जाता है तब उसका अंत :करण चतुष्टय भी साथ जाता है। सूक्ष्म शरीर स्थूल देह के जलाने से नष्ट नहीं होता है जीव के साथ बाहर निकल जाता है। कुछ समय तक शरीर के गिर्द मंडराता भी रहता है। सूक्ष्म शरीर की स्थूल काया के प्रति आसक्ति को नष्ट करने के लिए ही सनातन वैष्णवी परम्परा में मृत शरीर को  इसीलिए जला दिया।
मन हमारा प्राचीन है जन्मजन्मान्तरों से हमारे साथ सहयात्री बना हुआ है। आत्मा का संगी है। मन कभी नष्ट नहीं होता है। 
माया मरी ,न मन मरा ,मर मर गए शरीर ,
आशा तृष्णा ना मरी कह गए दास कबीर। 
सबीज सविकल्प समाधि से व्यक्ति वापस लौट आता है। इस अवस्था में उसका मन (अंत :करण ,सूक्ष्म शरीर )शेष है अभी।

Arun Dwivedi मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक है जाय |
विष कि क्यारी बोय के, लुनता क्यों पछिताय ||
#कबीर_दास

जी चाहता है कि मन को पटक कर ऐसा मारूँ, कि वह चकनाचूर हों जाये| विष की क्यारी बोकर, अब उसे भोगने में क्यों पश्चाताप करता है? 


  

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