रविवार, 19 नवंबर 2017

Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 11 Part 1



कल विश्वामित्र जी दशरथ जी के भवन में आये -मांग करते हैं :

अनुज समेत देओ रघुनाथा 

असुर समूह सतावहिं मोहिं ,

मैं आचन  आयहूँ   नृप तोहि 

अनुज समेत देओ रघुनाथा ,

निशिचर वध मैं होवहुँ सनाथा। 

और किसी भी राजा के लिए यह बहुत दयनीय अवस्था है सज्जन शक्ति को अपनी सुरक्षा की गुहार करने के लिए राजदरबार आकर रोना पड़े उस राजा को कहाँ जगह मिलेगी आप सोच सकते हैं।  प्रभु  इस दृश्य को देख रहें हैं बोले तो कुछ नहीं लेकिन मन ही मन में निश्चय कर लिया -एक नहीं कई निश्चय उन्होंने उस  समय कर लिए :

(१)एक पत्नीव्रत ,जबकि दशरथ जी को ३५० रानियां थीं 

(२)मैं भोग के लिए राजगद्दी स्वीकार नहीं करूंगा ,सेवा के लिए करूंगा ,और जब सेवा की आवश्यकता पड़ी एक जानकी जी का भी त्याग कर दिया। जगत कल्याण के लिए लोकरंजन लोक प्रसन्नता के लिए उनका भी त्याग कर दिया। 

दशरथ जी ने कभी राज्य का भ्रमण  किया ही नहीं उन्हें ये भी नहीं मालूम -मेरे राज्य में मेरे देश में सज्जन-शक्ति की साधु -संतों की ,सज्जन - पुरुषों की क्या स्थिति है वे यज्ञ आदि अनुष्ठान भी कर पाते हैं या नहीं ,पुत्रेष्ठि यज्ञ कर पाते हैं या नहीं क्योंकि संतान तो दशरथ को जब तक थी नहीं जब तक श्रृंगी ऋषि ने आकर यह यज्ञ संपन्न नहीं करवाया। 
जो कुछ भी समृद्धि राज्य की होती है वह धार्मिक अनुष्ठानों से होती है चाहे वर्षा हो चाहे फसल पके ,क्योंकि मनुष्य का जीवन देवताओं के आधीन है और हमारे मालिक सबके देवता हैं और उनकी तृप्ति  के लिए यज्ञादिक  अनुष्ठान होते नहीं थे।देवता प्रसन्न होते हैं यज्ञ अनुष्ठान से और राक्षस ऐसे अनुष्ठान होने नहीं देते थे ।  
ताड़कादिक और राक्षस  आकर मार देते थे  संतों को ताकि देवता उनके यज्ञादि करने से प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद न दे सकें। 
साधू संपत्ति मांगने नहीं सम्मति (संतति )मांगने आता है। सत्ता उस समय साधू की खुशामद करके उसे बुलाती थी आज स्थिति अलग है। नेता जी का फोटो मंदिर और संतों के घर में जगह पाता  है। ट्रांसफॉर्मर में जितना ज्यादा वोल्टेज होगा करेंट भी उसी के अनुरूप होगा। कुम्भ में आकर दोनों आवेश ग्रहण करते हैं व्यक्ति भी ट्रांसफॉर्मर भी ,जनसाधारण भी और संत भी। 

 किसी  विशिष्ठ साधु की वाणी में ही तेज़ होता है वशिष्ठ  जी विशिष्ठ ही थे। राजन को कहते हैं राजन आज यज्ञ संस्कृति पर संकट है ,दे दो क्योंकि तुमको ये चारों पुत्र यज्ञ के द्वारा ही मिले हैं और जब  यज्ञ  ही सुरक्षित नहीं रहेंगे तो भविष्य में कोई पुत्रेष्टि यज्ञ  भी नहीं कर पायेगा। 

दो पुत्र उसी संस्कृति के अनुरक्षण के लिए दो ,दो अपने पास रखो। 

साधू ने बोला और सत्ता झुक गई 

अब दशरथ जी बोले ले  जाइये !मुनिवर ले जाइये अब आप ही इनके माता पिता हैं ।राम लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र को सौंप दिए कहते हुए : 

तुम मुनि मातु पिता अब -

"विश्वामित्र महाधन पाई "-विश्वामित्र लिफाफा लेने नहीं गए थे "परमधन" लेने गए थे। 

"हमारो धन राधा राधा राधा ,

जीवन धन राधा श्री राधा श्री राधा। "

साधु का परमधन होता है 'भजन', वह वहां परलोक में जमा होता है यहां इस लोक के बैंक में जमा नहीं होता। 

रघुवंश में स्त्रियों का वध नहीं होता ,निषेध है इसका लेकिन विश्वामित्र बोले -राम ये पाप का मूल है। राक्षत्व की जड़ है। 
ताड़का का वध किया रामजी ने -ताड़का स्त्री नहीं थी राक्षसों की जननी   थी ,आसुरी प्रवृत्तियों की पोषक थी । दुराशा थी ,और दुराशा आशा को खा जाती है।

आशा सिर्फ राम से करो और जगह करोगे तो उपेक्षा मिलेगी। 

आशा एक राम जी से दूजी आशा छोड़ दो।  
सुबाहु का वध क्यों किया इसके बाद राम ने ,सुबाहु तो होता  है अच्छी बाजू वाला। सुन्दर बाजू थीं सुबाहु की बलिष्ठ थी बड़ी थीं लेकिन ये विशाल हाथ धर्म को सताने के लिए नहीं चाहिए ,ये सुबाहु लम्बी भुजाओं से धर्म संस्कृति को ही नष्ट कर रहा था। इसलिए राम कहते हैं इसको मैं मिटाता हूँ। 

मारीच (स्वर्ण मृग )को राम ने मारा नहीं ,मार नहीं सकते थे राम भी इसीलिए उसे सौ योजन दूर फेंक दिया ,मारीच (स्वर्ण मृग )के पीछे मनोहर कल्पनाओं के पीछे तो रामजी को भी दौड़ना पड़ा ,मोह का रावण अनेक नाटक करके आता है धोखा देकर। लक्ष्मण जैसे जागृत को भी धोखा देकर रावण सीता का अपहरण करके ले गया था।राम अपनी इन्हीं मनोहर कल्पनाओं के पीछे सीते  -सीते कहते दौड़ते हैं। सीता तो भक्ति को कहते हैं। यही है सन्देश कथा का। 

कथा मन के मालिन्य को धोने का साधन भी है साबुन भी। 
मनोहर कल्पनाओं को थोड़ा दूर रखा जा सकता है। राघव ने आकर यज्ञ संस्कृति को पुनर्जीवित कर दिया।विश्वामित्र की ही रक्षा नहीं की उनके मार्फ़त एक पूरी यज्ञ संस्कृति को बचा लिया राक्षसों का वध करके। 

विश्वामित्र बोले अभी एक यज्ञ और पूरा होना है :धनुष यज्ञ 

यह इच्छा विश्वामित्र जी ने तब प्रकट की जब राघव और लक्ष्मण दोनों गुरु विश्वामित्र की चरण सेवा कर रहे थे -विश्वामित्र बोले बेटा एक यज्ञ तो तुमने पूरा कर दिया अभी एक यज्ञ और अधूरा पड़ा है राघव बोले वह कौन  सा यज्ञ है ? 

जैसे ही विश्वामित्र ने धनुष यज्ञ बोला जानकी जी उनके मानस में आ गईं ,भक्ति बनके। जानकी जी भक्ति की प्रतीक हैं।भगवान् को मानसिक रूप से सीता जी दिखाई देने लगीं।  

भक्ति से मिलने के लिए भगवान् राम लालायित हो जाते हैं। 

"मंगल मूल लगन  दिव आया ,

हिम ऋतु  अगहन मास सुहावा। "

जनकपुर की पावन यात्रा के लिए भगवान् अपना दायां श्री  चरण आगे बढ़ाते हैं :पावन कदम बढ़ाते हैं :

धनुष यज्ञ सुनी रघुकुल नाथा ,

हर्ष चले मुनिवर के साथा।

जनकपुर की यात्रा माने भक्ति की यात्रा।  जीवन में भजन प्राप्त करने की यात्रा। बिना गुरु के साधन के न भक्ति प्राप्त होती है न भजन। भक्ति फलित होती है गुरु की कृपा से। भजन सफल होता है  गुरु के आशीर्वाद से। शास्त्र पढ़ने से बुद्धि बढ़ सकती है तर्कणा शक्ति बढ़ सकती है.

 भजन फलित होता है गुरु के सानिद्य से। गुरु अपने शिष्य को ऐसे सेता है जैसे पक्षी अपने अण्डों को सेता है।जो गुरु की रेंज में रहेगा वह पकेगा उन अण्डों की तरह जो मुर्गी के , पंखों के नीचे होते हैं।गुरु के साथ ही नहीं रहना है गुरु के पास भी रहना है। साथ रहना बहुत ज़रूरी नहीं है।पास रहना आवश्यक है। जो अंडे पंखों से बाहर रहते हैं वह सड़  जाते हैं। 

पास होने का मतलब मानसिक रूप से पास होना है ,गुरु की इच्छा में जीना है गुरु के आदेश को मानना है ,गुरु के आचरण में जीना है वैसे जीना है जो गुरु को पसंद है वैसा आचरण व्यवहार करना है  जो गुरु को पसंद है , फिर चाहें गुरु से कोसों मील दूर हों आप। 

मूर्ख शिष्य और लोभी गुरु :गुरु के साथ रहने से कई बार ईर्ष्या  के अलावा और भी खतरे पैदा हो जाते हैं। कथा है एक लालची गुरु थे। उनके दो चेले थे। गुरु ने जो मांग जोड़ के संजोया था वह सब जो भी थोड़ा बहुत था  एक पोटली में बाँध के रखते थे। चाबी अपने पास रखते थे। 
गुरु के दो शिष्य थे। दोनों की नज़र गुरु की पोटली पे रहती थी। सेवा का नाटक करते थे पहले मैं करूंगा ,दूसरा कहता पहले मैं चरण सेवा करूंगा गुरु जी की। गुरु जी ने कहा लड़ते क्यों हो ,एक -एक पैर बाँट लो। एक तुम दबा दो दूसरा  तुम।

चेले ऐसा ही करने लगे। एक बार एक चेला आश्रम से बाहर चला गया। रात हुई दूसरा गुरु जी का अपने हिस्से वाला पैर दबाने लगा। थोड़ी देर बाद अचानक गुरूजी ने करवट ली तो गुरु जी का दूसरा पैर इसके पाँव पर आ गया। चेला आपे  से बाहर हो गया। 

तेरी ये हिम्मत मेरा पाँव दबाएगा। लाठी लाया और गुरु जी पे पिल पड़ा। दूसरा जब बाहर से आया तो पूछा गुरु जी ये हाल कैसे हो गया। बूढ़े गुरु ने सब बयान कर दिया। अब दूसरा शिष्य अंदर गया और जलती हुई लकड़ी लाकर गुरु जी को मारता रहा जब तक वो मर ही न गए कहते हुए तेरी ये हिम्मत मेरे पैर का ये हाल कर दिया। उसने दूसरा पैर भी तोड़ दिया। 

इसलिए गुरु के आदेश में रहना ,गुरु की साँसों में जीना ज़रूरी है गुरु अपनी साधना  संपत्ति शिष्य को ही देकर जाता है। गुरु की चेतना कभी समाप्त नहीं होती ,गुरु प्रकट होते हैं और अंतर्ध्यान हो जाते हैं गुरु शरीर नहीं हैं ,तत्व हैं। गुरु के संकेतों को समझना और उनके अनुसार जीना है । 

आपका एंटीना गुरु से जुड़ा होना ज़रूरी है।गुरु के साथ रहते हुए भी यदि उसके संकेतों को नहीं समझोगे तो  पत्थर ही रहोगे।  
अगला प्रसंग आगे शबरी का है :
शबरी नाम की लड़की को अठारह बरस की उम्र में मतंग ऋषि छोड़कर चले गए कहकर बेटी तेरे द्वार पर एक दिन राम आएंगे। पुरुष वेश में पहली बार जो तेरे द्वार पे आये समझ जाना राम आये हैं ,गुरु की वाणी सत्य होती है। 

(ज़ारी )  

सन्दर्भ -सामिग्री :

(१)https://www.youtube.com/watch?v=4PNoII8M9To

(२ )0

Vijay Kaushal Ji Maharaj | Shree Ram Katha Ujjain Day 11 Part 1

:55 / 1:00:15

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें