हमारे नर्वस सिस्टम (स्नायुविक तंत्र )से ताल्लुक रखने वाले इस अपविकासी रोग पार्किन्जेंस रोग या पार्किन्जेंस सिंड्रोम में हमारे दिमाग के उस हिस्से से दिमागी कोशिकाओं (न्यूरॉन्स )का क्षय होने लगता है जो एक न्यूरोट्रांसमीटर (जैव -रसायन )डोपामाइन तैयार करतीं हैं।इस ब्रेन केमिकल का अंग संचालन में बड़ा हाथ रहता है। इस हिस्से के न्यूरॉन्स जब घटकर कमतर रह जाते हैं ,अंग संचालन असर ग्रस्त होने लगता है।
अभी तलक इस रोग की पुष्टि के लिए कोई पुख्ता परीक्षण नहीं हैं कभी -कभार रोग निदान -मिस -डायग्नोज़ड भी रह जाता है।ऐसे में फिर लक्षण ही रोग निदान का आधार बनते हैं।
क्या होता है डोपामाइन बनाने वाली कोशिकाओं के कम रह जाने पर ?
नतीजा होता है अंग संचलान में बाधा जिसकी शुरुआत मामूली हाथ के हल्के से कम्पन या फिर पेशी के अकड़ाव से होती है। लेकिन यह इस लक्षण के बढ़ते चले जाने की शुरुआत होती है जो धीरे -धीरे बढ़ता ही चला जाता है ,बद-से बढ़कर -बदतर हो जाता है।घर में भी चलने फिरने बात करने में मरीज़ को दिक्कत होने लगती है।
पेशीय संचालन नियंत्रण तो इसमें असरग्रस्त होता ही है कुछेक अंग अकड़ने भी लगते हैं लोच कमतर होती जाती है संतुलन और समन्वयन अंग संचालन का बिगड़ जाता है।ठवन(Gait ) बिगड़ जाता है ,सीधा चलना मुहाल हो जाता है कालान्तर में।
स्वत : सम्पन्न अचेतन स्तर पर होने वाली हरकतें - पलकों का झपकना ,चलते समय हाथों का आगे पीछे जाना ,मुस्कुराना भी कमतर होता जाता है इस रोग में। शरीर के एक हिस्से ,एक पार्श्व ,एक साइड में लक्षण ज्यादा उग्र रूप लिए रहते हैं।
रोग बढ़ने पर मरीज़ अपने रोज़ मर्रा के काम खुद नहीं कर पाता है ,बोलचाल अस्पष्ट बुदबुदाहट में ही बदल के रह जाती है जो साथ -साथ रहते सेवा करते हैं वही समझ पाते हैं इनका सम्भाषण।
मैंने इस रोग की अंतिम अवस्था के मरीज़ भी देखें हैं। एक महिला हैं मेरे गुरु समान जिनका मैं अनुगामी आदिनांक रहा हूँ ,अविवाहित ही रहीं लेकिन इस रोग से ग्रस्त अपने पिता की उनके आखिरी क्षण तक ऐसे सेवा की जैसे नवजात शिशु की माँ करती हैं नहलाना ,पौंछना पुचकारना ,थपथपाना सब यही करतीं थीं। पिता के चले जाने के बाद बावरी सी रही काफी दिन। एक बेहद मारक खाली पन इन्हें घेरे रहा। आकाशवाणी से सम्बद्ध रहीं ,और शीर्ष पद तक पहुंची।यहां तक की अंतिम संस्कार भी पिता का इन्होने खुद ही किया। पंडित जी को बतला दिया गया था अग्नि प्रज्वल्लित ये ही करेंगी। भाई पहुंचा था शमशान लेकिन तब तक अग्नि प्रज्वलित हो चुकी थी।
आज उसी भारत में माँ की कोख को ही गर्भस्थ कन्या की कब्र बना दिया जाता है।जबकि ऐसा समर्पण बेटियों में ही मिल सकता है।
रोग के अन्य संभावित कारण :
आनुवंशिक आधार भी होता है इस रोग का १५ -२५ फीसद मामलों में मरीज़ के परिवार में कोई एक और सदस्य इससे ग्रस्त रहता है। एक ख़ास जीवन इकाई (खानदानी अंश जीन के अलावा ,एक पूरे जीन समूह की भी निशान - देही कर ली गई है जो इस रोग को लेकर शक के दायरे में आ चुका है। रोग के पीछे पर्यावरणी घटकों (माहौल ,एनवायर्नमेंटल फैक्टर्स )का भी कुछ न कुछ हाथ रहा हो सकता है।
रिसर्चरों के अनुसार एक जीवन इकाई LRRK 2 में पैदा उत -परिवर्तन (जेनेटिक म्यूटेशन )का पारकंसिंज डिज़ीज़ के संभावित कारणों में बड़ा हाथ हो सकता है।
लेकिन माहिरों के अनुसार ये उत -परिवर्तन भी मिश्र हो सकते हैं कई जीवन इकाइयों के समूह ऐसे आनुवंशिक परिवर्तनों में म्यूटेशंस में शामिल रहे हो सकते हैं जो अंततया इस रोग को हवा दे देते हैं.
शक की सुईं यद्यपि हमारे पर्यावरण में मौजूद कुछ रासायनिक टोक्सिनों (विष पदार्थ )यथा TCE और PERC की ओर भी घूम गई है लेकिन माहिर इसे रोग की अकेली वजह नहीं बतलाते हैं।
पूरे विश्व में सत्तर लाख से लेकर कोई एक करोड़ लोग इस रोग से ग्रस्त होते हैं और अकेले अमरीका में साल दर साल साठ हज़ार मामलों में इस रोग की पुष्टि कर ली जाती है ,मुखर लक्षणों के आधार पर।
इस समय एक अनुमान के अनुसार उत्तरी अमरीका में ही इसके दस लाख मरीज़ मौजूद हैं। पचास से ऊपर आयु वर्ग इसका ज्यादा शिकार बनता है ,मर्द औरतों से ज्यादा इसकी चपेट में आते हैं।
स्वास्थ्य विज्ञानों के राष्ट्रीय संस्थानों के अनुसार रोग का कोई इलाज़ यदयपि नहीं है लेकिन इसके साथ रहना सिखलाया जा सकता है लक्षणों के साथ तालमेल बैठाया जा सकता है।कुछ राहत अवश्यमेव मिल सकती है।
इलाज़ रणनीतियां ?
दिमाग का वह हिस्सा जो अंगसंचालन के लिए उत्तरदाई होता है और जहां से डोपामाइन बनाने वाली कोशाएं कम रह जाती है किसी वजह से उन कोशिकाओं से ज्यादा डोपामाइन तैयार करवाने की रणनीति के तहत इस रोग के माहिर -लेवोडोपामिने(Levodo) एक और दवा कार्बिडोपा (Carbidopa)के साथ देते हैं।
दिमाग के इस हिस्से को गहन उत्तेजन प्रदान करने की रणनीति के तहत कुछ इलेक्ट्रोड्स का प्रत्यारोप लगा दिया जाता है जिन्हें एक विद्युत् स्पंदन छोड़ने वाली युक्ति से जोड़ दिया जाता है।
अवसाद (depression )के मरीज़ों पर भी यह रणनीति Deep Brain Stimulation आज़माई जाती है।आजकल अवसाद को एक स्वतन्त्र रोग का दर्ज़ा मिला हुआ है।
तै ची (Tai Chi ) भी कुछ लोग पसंद करते हैं
एक अभिनव रणनीति के तहत फीटल डोपामाइन सेल्स का प्रत्यारोप लगाने से उन मरीज़ों में लक्षणों का पचास फीसद तक शमन देखा गया है जिन पर दवाई अब कारगर नहीं हो रही थी।लक्षणों की उग्रता कम नहीं हो पा रही थी।
सन्दर्भ -सामिग्री :
Reference:
(२ )https://www.npr.org/sections/thetwo-way/2017/11/17/564836312/jesse-jackson-says-he
The Rev. Jesse Jackson announced Friday that he has Parkinson's disease, saying that he first noticed symptoms "about three years ago."
अभी तलक इस रोग की पुष्टि के लिए कोई पुख्ता परीक्षण नहीं हैं कभी -कभार रोग निदान -मिस -डायग्नोज़ड भी रह जाता है।ऐसे में फिर लक्षण ही रोग निदान का आधार बनते हैं।
क्या होता है डोपामाइन बनाने वाली कोशिकाओं के कम रह जाने पर ?
नतीजा होता है अंग संचलान में बाधा जिसकी शुरुआत मामूली हाथ के हल्के से कम्पन या फिर पेशी के अकड़ाव से होती है। लेकिन यह इस लक्षण के बढ़ते चले जाने की शुरुआत होती है जो धीरे -धीरे बढ़ता ही चला जाता है ,बद-से बढ़कर -बदतर हो जाता है।घर में भी चलने फिरने बात करने में मरीज़ को दिक्कत होने लगती है।
पेशीय संचालन नियंत्रण तो इसमें असरग्रस्त होता ही है कुछेक अंग अकड़ने भी लगते हैं लोच कमतर होती जाती है संतुलन और समन्वयन अंग संचालन का बिगड़ जाता है।ठवन(Gait ) बिगड़ जाता है ,सीधा चलना मुहाल हो जाता है कालान्तर में।
स्वत : सम्पन्न अचेतन स्तर पर होने वाली हरकतें - पलकों का झपकना ,चलते समय हाथों का आगे पीछे जाना ,मुस्कुराना भी कमतर होता जाता है इस रोग में। शरीर के एक हिस्से ,एक पार्श्व ,एक साइड में लक्षण ज्यादा उग्र रूप लिए रहते हैं।
रोग बढ़ने पर मरीज़ अपने रोज़ मर्रा के काम खुद नहीं कर पाता है ,बोलचाल अस्पष्ट बुदबुदाहट में ही बदल के रह जाती है जो साथ -साथ रहते सेवा करते हैं वही समझ पाते हैं इनका सम्भाषण।
मैंने इस रोग की अंतिम अवस्था के मरीज़ भी देखें हैं। एक महिला हैं मेरे गुरु समान जिनका मैं अनुगामी आदिनांक रहा हूँ ,अविवाहित ही रहीं लेकिन इस रोग से ग्रस्त अपने पिता की उनके आखिरी क्षण तक ऐसे सेवा की जैसे नवजात शिशु की माँ करती हैं नहलाना ,पौंछना पुचकारना ,थपथपाना सब यही करतीं थीं। पिता के चले जाने के बाद बावरी सी रही काफी दिन। एक बेहद मारक खाली पन इन्हें घेरे रहा। आकाशवाणी से सम्बद्ध रहीं ,और शीर्ष पद तक पहुंची।यहां तक की अंतिम संस्कार भी पिता का इन्होने खुद ही किया। पंडित जी को बतला दिया गया था अग्नि प्रज्वल्लित ये ही करेंगी। भाई पहुंचा था शमशान लेकिन तब तक अग्नि प्रज्वलित हो चुकी थी।
आज उसी भारत में माँ की कोख को ही गर्भस्थ कन्या की कब्र बना दिया जाता है।जबकि ऐसा समर्पण बेटियों में ही मिल सकता है।
रोग के अन्य संभावित कारण :
आनुवंशिक आधार भी होता है इस रोग का १५ -२५ फीसद मामलों में मरीज़ के परिवार में कोई एक और सदस्य इससे ग्रस्त रहता है। एक ख़ास जीवन इकाई (खानदानी अंश जीन के अलावा ,एक पूरे जीन समूह की भी निशान - देही कर ली गई है जो इस रोग को लेकर शक के दायरे में आ चुका है। रोग के पीछे पर्यावरणी घटकों (माहौल ,एनवायर्नमेंटल फैक्टर्स )का भी कुछ न कुछ हाथ रहा हो सकता है।
रिसर्चरों के अनुसार एक जीवन इकाई LRRK 2 में पैदा उत -परिवर्तन (जेनेटिक म्यूटेशन )का पारकंसिंज डिज़ीज़ के संभावित कारणों में बड़ा हाथ हो सकता है।
लेकिन माहिरों के अनुसार ये उत -परिवर्तन भी मिश्र हो सकते हैं कई जीवन इकाइयों के समूह ऐसे आनुवंशिक परिवर्तनों में म्यूटेशंस में शामिल रहे हो सकते हैं जो अंततया इस रोग को हवा दे देते हैं.
शक की सुईं यद्यपि हमारे पर्यावरण में मौजूद कुछ रासायनिक टोक्सिनों (विष पदार्थ )यथा TCE और PERC की ओर भी घूम गई है लेकिन माहिर इसे रोग की अकेली वजह नहीं बतलाते हैं।
पूरे विश्व में सत्तर लाख से लेकर कोई एक करोड़ लोग इस रोग से ग्रस्त होते हैं और अकेले अमरीका में साल दर साल साठ हज़ार मामलों में इस रोग की पुष्टि कर ली जाती है ,मुखर लक्षणों के आधार पर।
इस समय एक अनुमान के अनुसार उत्तरी अमरीका में ही इसके दस लाख मरीज़ मौजूद हैं। पचास से ऊपर आयु वर्ग इसका ज्यादा शिकार बनता है ,मर्द औरतों से ज्यादा इसकी चपेट में आते हैं।
स्वास्थ्य विज्ञानों के राष्ट्रीय संस्थानों के अनुसार रोग का कोई इलाज़ यदयपि नहीं है लेकिन इसके साथ रहना सिखलाया जा सकता है लक्षणों के साथ तालमेल बैठाया जा सकता है।कुछ राहत अवश्यमेव मिल सकती है।
इलाज़ रणनीतियां ?
दिमाग का वह हिस्सा जो अंगसंचालन के लिए उत्तरदाई होता है और जहां से डोपामाइन बनाने वाली कोशाएं कम रह जाती है किसी वजह से उन कोशिकाओं से ज्यादा डोपामाइन तैयार करवाने की रणनीति के तहत इस रोग के माहिर -लेवोडोपामिने(Levodo) एक और दवा कार्बिडोपा (Carbidopa)के साथ देते हैं।
दिमाग के इस हिस्से को गहन उत्तेजन प्रदान करने की रणनीति के तहत कुछ इलेक्ट्रोड्स का प्रत्यारोप लगा दिया जाता है जिन्हें एक विद्युत् स्पंदन छोड़ने वाली युक्ति से जोड़ दिया जाता है।
अवसाद (depression )के मरीज़ों पर भी यह रणनीति Deep Brain Stimulation आज़माई जाती है।आजकल अवसाद को एक स्वतन्त्र रोग का दर्ज़ा मिला हुआ है।
तै ची (Tai Chi ) भी कुछ लोग पसंद करते हैं
एक अभिनव रणनीति के तहत फीटल डोपामाइन सेल्स का प्रत्यारोप लगाने से उन मरीज़ों में लक्षणों का पचास फीसद तक शमन देखा गया है जिन पर दवाई अब कारगर नहीं हो रही थी।लक्षणों की उग्रता कम नहीं हो पा रही थी।
सन्दर्भ -सामिग्री :
Reference:
(१ )http://www.cnn.com/2016/11/07/health/parkinsons-disease/index.html
The Rev. Jesse Jackson announced Friday that he has Parkinson's disease, saying that he first noticed symptoms "about three years ago."
Jackson, 76, released the news in what he called an update "on my health and the future."
The longtime political and social activist, who was part of Martin Luther King Jr.'s inner circle in the 1960s and who later founded the Rainbow PUSH Coalition, said that after noticing signs of the motor system disorder, he attempted to work through it.
"But as my daily physical struggles intensified, I could no longer ignore the symptoms, so I acquiesced," Jackson wrote in a statement released Friday.
"After a battery of tests, my physicians identified the issue as Parkinson's disease, a disease that bested my father," he said. "Recognition of the effects of this disease on me has been painful, and I have been slow to grasp the gravity of it."
Jackson has been receiving outpatient treatment for the disease from Northwestern Medicine in Chicago, which released its own short statement about his condition. The facility says Jackson was first diagnosed in 2015.
Jackson added, "For me, a Parkinson's diagnosis is not a stop sign," saying that he will do what he can to slow the disease, through physical therapy and changes to his lifestyle.
Parkinson's is most well-known for causing tremors and other muscle-control problems. It also causes rigidity and stiffness in parts of the body, and as it progresses, the disease leaves its victims with impaired coordination and balance, according to the National Institutes of Health. The disease has been linked to the loss of dopamine-producing cells in parts of the brain that control movement. There is no cure.
Here is the full text of Jackson's announcement, which he addressed to friends and supporters:
"On July 17, 1960, I was arrested, along with seven other college students, for advocating for the right to use a public library in my hometown of Greenville, S.C. I remember it like it was yesterday, for that day changed my life forever. From that experience, I lost my fear of being jailed for a righteous cause. I went on to meet Dr. King and dedicate my heart and soul to the fight for justice, equality, and equal access. In the tradition of the Apostle Paul, I have offered myself — my mind, body and soul — as a living sacrifice.
"Throughout my career of service, God has kept me in the embrace of his loving arms, and protected me and my family from dangers, seen and unseen. Now in the latter years of my life, at 76 years old, I find it increasingly difficult to perform routine tasks, and getting around is more of a challenge. My family and I began to notice changes about three years ago. For a while, I resisted interrupting my work to visit a doctor. But as my daily physical struggles intensified I could no longer ignore the symptoms, so I acquiesced.
"After a battery of tests, my physicians identified the issue as Parkinson's disease, a disease that bested my father.
"Recognition of the effects of this disease on me has been painful, and I have been slow to grasp the gravity of it. For me, a Parkinson's diagnosis is not a stop sign but rather a signal that I must make lifestyle changes and dedicate myself to physical therapy in hopes of slowing the disease's progression.
"I am far from alone. God continues to give me new opportunities to serve. This diagnosis is personal but it is more than that. It is an opportunity for me to use my voice to help in finding a cure for a disease that afflicts 7 to 10 million worldwide. Some 60,000 Americans are diagnosed with Parkinson's every year.
"I will continue to try to instill hope in the hopeless, expand our democracy to the disenfranchised and free innocent prisoners around the world. I'm also spending some time working on my memoir so I can share with others the lessons I have learned in my life of public service. I steadfastly affirm that I would rather wear out than rust out.
"I want to thank my family and friends who continue to care for me and support me. I will need your prayers and graceful understanding as I undertake this new challenge. As we continue in the struggle for human rights, remember that God will see us through, even in our midnight moments.
"KEEP HOPE ALIVE!
"Rev. Jesse L. Jackson, Sr."
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