ऐसे शुरू हुआ देश में आरक्षण, इन्होंने दिया था सबसे पहले रिजर्वेशन
हरियाणा में आरक्षण को लेकर जाटों का आंदोलन उग्र रूप ले चुका है, जिसने देश का एक बड़ा धड़ा प्रभावित हुआ है। भारत में आरक्षण को लेकर जाटों व किसी और वर्ग का ये कोई पहला आंदोलन नहीं है। इससे पहले राजस्थान के गुर्जर और गुजरात में पटेल समाज के लोग भी आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन करते आए है। इसके अलावा कई बार जातिगत और समुदाय स्तर पर आरक्षण की आग देश को जला चुकी है।
छत्रपति साहूजी महाराज ने दिया था आरक्षण
1880 के आस-पास ब्रिटिश इंडिया में प्रिंस स्टेट में पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के लिए पहल किया जाना शुरू हो गया था। 1882 में हटर कमीशन में भी इस बात पर जोर दिया गया था। इसी समय महात्मा ज्योतिराव फुले ने रियासतों में नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ों को आरक्षण की मांग की। ये मांग बाद में एक आंदोलन में बदल गई।
इसी बीच देश की एक बड़ी रियासत कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज द्वितीय ने 1902 में रियासत में आरक्षण की घोषणा कर दी। ये आरक्षण गैर ब्राहमण और पिछड़ी जातियों को दिया गया था। इसके तहत उन्होंने फ्री एजुकेशन के लिए स्कूल और हॉस्टल भी खुलवाए। रियासत की ओर से जारी नोटिफिकेशन में 50 फीसदी आरक्षण की घोषणा भी की गई। ये किसी भी रियासत की ओर से आरक्षण को लेकर पहली आधिकारिक घोषणा थी। रियासत में अनटचबिलिटी को लेकर भी कड़े नियम बनाए गए।
1909 में मार्ले-मिंटो सुधार ने भी दिया आरक्षण
1909 में ब्रिटिश सरकार ने इंडियन काउंसिल एक्ट-1909 पारित किया जिसके मार्ले-मिंटो सुधार के नाम से भी जाना जाता है। इस एक्ट में मुस्लिम समाज को काउंसिल इलेक्शन में पृथक निर्वाचन के लिए रिजर्वेशन दिया गया। इसके अलावा 1919 के मॉन्टयेगू-चैम्सफोर्ड सुधार में भी आरक्षण की बात कही गई।
साइमन कमीशन ने की थी रिजर्वेशन की बात
1919 के मॉन्टयेगू-चैम्सफोर्ड सुधार की समीक्षा करने आए साइमन कमीशन ने देश की पिछड़ी जातियों को केन्द्रीय और प्रांतीय असेम्बली में प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण संबंधी सुझाव दिए थे, जिसको गर्वमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 में शामिल किया गया था।
ब्रिटिश सरकार ने 1932 में दिया था आरक्षण
भारत में रिजर्वेशन को लेकर सबसे बड़ी घोषणा 1932 के कम्युनल अवार्ड को माना जाता है। ब्रिटिश पीएम रेमजे मैकडोनल्ड ने रिजर्वेशन बिल के तहत देश में निर्वाचन के लिए भारतीय समाज को अगड़े समाज, निचली जातियां, मुस्लिम, बौद्ध, सिक्ख, भारतीय ईसाई, एंग्लो इंडियन और दलितों का पृथक-पृथक आरक्षण की बात कही थी। इस बिल पर गांधी जी ने यरवड़ा जेल में ही विरोध शुरू कर दिया था, जिसके बाद दलितों को हिन्दुओं में ही शामिल कर रिजर्वेशन की बात की गई, जबकि अन्य समुदाय यथावत रहे।
स्वतंत्रता से पहले और उसके बाद भी जातिगत आरक्षण को लेकर कई आंदोलन हुए। जाटों के अलावा गुर्जर और गुजरात के पटेल भी आरक्षण को लेकर आंदोलन की तैयारी में हैं।
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
आरक्षण के आलोक में :वर्णआश्रम व्यवस्था
ब्राह्मण ,क्षेत्रीय ,वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण बतलाये गए हैं। तथा ब्रह्मचर्य (बाल्यकाल और कैशोर्य अवस्था ,यानी पढ़ने -लिखने ,पठन ,पाठन की अवधि ) ,ग्राहस्थ्य (युवावस्था से प्रौढ़ावस्था ),वानप्रस्थ और संन्यास ये चार अवस्थाएं (स्टेजिज़ ,आश्रम )बतलाये गए हैं।
ब्राह्मण उसे कहा गया है जिसने ब्रह्म को जान लिया है। इसका कुलगोत्र-जाति से सम्बन्ध नहीं माना गया है। कर्म प्रधान व्यवस्था है यहां -जो वेदपाठी है श्रोत्रिय है जिसने श्रुतियों का मर्म जान लिया है और उसे अन्यों को समझा रहा है वह ब्राह्मण है।
जो प्रशासन और देश की रक्षा में संलग्न है वह क्षत्रीय है। (जाट इस कर्मप्रधान व्यवस्था के तहत क्षत्रीय हैं ,खासकर हरियाणा में जहां वे आगे बढ़के लीड कर रहें हैं राजनीति और प्रशासन को ).देश की सुरक्षा की वह रीढ़ बने हुए हैं। देश के परमशौर्य के प्रतीक माननीय जनरल दलबीर सिंह सुहाग जी जाट हैं।
वैश्य वह है जो खेती करता है पशुपालन करता है। व्यापार करता है लोगों को पेट भरने के साधन उपलब्ध करवाता है।
और शूद्र उल्लेखित वर्गों की सेवा के लिए नियुक्त था। सेवा ही उसका धर्म समझा गया है।
परहित सरिस धर्म नहीं भाई ,
परपीड़ा सम नहीं अधमाई।
(दूसरो के हित के लिए कार्य करना सबसे बडा धर्म है,
एवं दूसरो को हानि पहॅंचाना सबसे बडा पॅाप है)
इन चारों वर्णों में सामजस्य था। बड़े छोटे का भेदभाव नहीं था। सामाजिक समरसता और अनुशासन को बनाये रखने के लिए ये समाज के चार खम्भे माने गए थे।
लेकिन यह व्यवस्था जड़ नहीं थी गत्यात्मक थी। ब्राह्मण परिवार में पैदा ऐसा बालक जो वेदज्ञान से शून्य रहा आया है शूद्र है। द्विज है।
शूद्र बालक जो वेदपरायण है ब्राह्मण हो सकता है इस व्यवस्था के तहत। महर्षि वेदव्यास शूद्र से ब्राह्मण हो जाते हैं ,विश्वामित्र इस गत्यात्मकता के उदाहरण हैं। विश्वामित्र कभी ब्राह्मण हो जाते हैं कभी क्षेत्रीय।
कृष्णा का मानव रूप में पूर्णअवताररूप जाट ही समझो।
द्रोण आचार्य क्षत्रीय ही कहे जायेंगें हालांकि वे ब्राह्मण थे। युद्धकला प्रवीण थे। और भारत ही क्यों दुनिया भर के तमाम देशों में आज भी यही कर्मप्रधान व्यवस्था है।
जातिगत वर्ण विभाजन शाश्त्र सम्मत नहीं है। सामाजिक विचलन है।
इस आलोक में हमारा जाट वर्ण श्रेष्ठि वर्ग माना जा सकता है ,पिछड़ा तो यह कहीं से भी नहीं है। आगे बढ़के लीड कर रहा है। करता रहे इसी प्रत्याशा के साथ।
जैश्रीकृष्णा।
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